डा. भरत झुनझुनवाला। ईंधन तेल के दाम में बीते समय में भारी गिरावट आयी है। गत वर्ष अगस्त में दाम 103 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल था जो कि गत माह 48 डॉलर रह गया था। मोदी सरकार ने इस गिरावट के लाभ को जनता को हस्तान्तरित कर दिया है यानी हमारे पेट्रोल स्टेशन पर तेल के दाम गिर रहे हैं। इसके विपरीत केजरीवाल सरकार ने तेल पर टैक्स बढ़ा दिया है यानी अंतरराष्ट्रीय गिरावट का उपयोग सरकारी खजाने को बढ़ाने के लिये किया है, न कि उपभोक्ता को राहत पहुंचाने के लिये। इन दोनों दृष्टिकोणों के बीच मूल प्रश्न यह है कि तेल की खपत बढ़ाना श्रेयस्कर है अथवा इसे घटाना चाहिये। मोदी सरकार की पॉलिसी में तेल के दाम गिरेंगे और तेल की खपत बढ़ेगी। इसके विपरीत केजरीवाल की पॉलिसी में तेल के दाम बढ़ेंगे और तेल की खपत घटेगी।
अपनी ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिये हम आयातों पर निर्भर हैं। आज हम 70 प्रतिशत से अधिक ऊर्जा का कोयले, तेल एवं यूरेनियम के रूप में आयात कर रहे हैं। इससे हमारी सुरक्षा एवं आर्थिक संप्रभुता पर आघात पहुंचता है। जैसे अरब देश यदि हमें तेल बेचना बंद कर दें तो हमारे उद्योग एवं रेल ठप हो जायेंगे। अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिये तेल की खपत को कम करना ही उचित है। अत: केजरीवाल की पॉलिसी ही ठीक दिखती है। लेकिन केवल तेल की खपत में पर्याप्त कटौती नहीं हो पायेगी।
तेल की खपत कम करने के दूसरे उपायों पर भी सरकार को विचार करना चाहिए। कई देशों में कानून है कि कार में कम से कम दो लोग होने चाहिए। यदि आप अकेले कार में जा रहे हैं तो आप पर जुर्माना किया जा सकता है। आपके लिए जरूरी हो जाता है कि किसी व्यक्ति को कार में पैसेन्जर के रूप मे बैठाएं। इससे लोगों को कार पूल बनाने की प्रेरणा मिलती है। दफ्तर जाने अथवा वीकएन्ड के सैर-सपाटे के लिए लोग कार पूल बना लेते हैं। इस कार्य के लिए विशेष एजेन्सियां हैं जो कार के मालिक और पैसेन्जर का मेल कराती हैं। इस तरह के कदमों को लागू करने का प्रोत्साहन तब ही मिलेगा जब तेल का मंहगा मूल्य जनता को अदा करना होगा।
तेल के मूल्य कम रहने से ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के विकास पर दुष्प्रभाव पड़ता है। हरिद्वार के श्यामपुर गांव में अस्सी के दशक में उस क्षेत्र में किसानों ने भारी संख्या में गोबर गैस संयंत्र लगाए थे। वे गोबर को सड़ा कर गैस बना रहे थे और इससे अपने घर की बत्ती एवं चूल्हे जला रहे थे। नब्बे के दशक में एलपीजी गैस के सिलेंडर आसानी से एवं सस्ते उपलब्ध हो गए। तब किसानों ने गोबर गैस प्लांट बंद कर दिए। देश ने वैकल्पिक ऊर्जा के एक स्रोत को बंद कर दिया। जो ऊर्जा हमें गोबर गैस से मिलनी थी, उसकी पूर्ति अब एलपीजी के आयात से हो रही है। तेल के दाम कम होने के कारण ऊर्जा के दूसरे स्रोतों का विकास कम होता है। सौर ऊर्जा के उत्पादन की लागत आज ज्यादा आ रही है। एलपीजी सिलेंडर का बाजार मूल्य यदि 1200 रुपए हो जाए तो सौर ऊर्जा का उपयोग लाभकारी हो जाएगा। गृहिणी भोजन पकाने के लिए सोलर कुकर का उपयोग करेगी, चूंकि गैस मंहगी है। इसी प्रकार वायु ऊर्जा का भी विकास अवरुद्ध होता है। प्रश्न रहा महंगाई का। सच यह है कि तेल के ऊंचे मूल्यों के कारण महंगाई बढ़ेगी। ढुलाई महंगी होने के कारण प्रभाव सर्वत्र पड़ेगा। परन्तु इस समस्या से भागने से काम नहीं चलेगा। जैसे बाढ़ आ रही हो तो जलस्तर के बढऩे को अनदेखा करना घातक हो जाता है। महंगाई से निपटने के लिये दूसरे माल पर टैक्स में कटौती की जा सकती है। जैसे च्यवनप्राश, जिम के उपकरण, कापी-किताब इत्यादि पर टैक्स में कटौती कर दें तो तेल की मूल्य वृद्धि निष्प्रभावी हो जायेगी। सरकार यदि तेल पर टैक्स लगाकर 100 करोड़ का टैक्स कमाती है तो दूसरे माल पर 100 करोड़ की छूट दे दी जाये तो महंगाई नहीं बढ़ेगी, देश की आर्थिक संप्रभुता सुदृढ़ रहेगी और स्वास्थ्यवर्धक माल की खपत में वृद्धि होगी।
तेल के मूल्य में वृद्धि से हमें दूसरी तरफ नुकसान हो सकता है। अपने देश में ऊर्जा का मूल्य अधिक होने से हमारा माल महंगा पड़ेगा और हम विश्व बाजार से बाहर हो जायेंगे। कमर्शियल उपभोक्ता के लिये चीन में बिजली का दाम 2 से 3 रु. प्रति यूनिट है जबकि भारत में 5 से 6 रु.। कई उद्योगों में बिजली की भारी खपत होती है, जैसे एल्यूमिनियम के स्मेल्टर अथवा मिनी स्टील मिल में। भारत में इस माल के उत्पादन में लागत ज्यादा आती है और हमारे उद्योग चीन के सामने नहीं टिक पाते हैं। अत: हमें ऊर्जा का मूल्य दूसरे देशों के समक्ष न्यून रखना होगा। परिणाम होगा ऊर्जा की खपत बढ़ेगी और रेडियोधर्मी कचरे के भंडारण जैसी समस्यायें विकट होती जायेंगी। हमें ऐसी युक्ति निकालनी है कि हम वैश्विक प्रतिस्पर्धा में खड़े रह सकें और अपने पर्यावरण एवं संस्कृति को नष्ट होने से भी बचा ले जायें।
सुझाव है कि आयातों पर टैक्स आरोपित करें और निर्यातों पर सब्सिडी दें। मान लीजिये ऊर्जा के ऊंचे दाम के कारण भारत में एक टी-शर्ट की उत्पादन लागत 40 रु. के स्थान पर 50 रु. आती है और विश्व बाजार में टी-शर्ट की कीमत 40 रु. है। ऐसे में चीन में बनी टी-शर्ट भारत में बिकेगी और हमारे उद्योग ठप पड़ जायेंगे। इस परिस्थिति का सामना करने के लिये सरकार टी-शर्ट पर 10 रु.अतिरिक्त आयात कर आरोपित कर सकती है। ऐसा करने से चीन में बनी टी-शर्ट हमारे यहां पहुंच कर 50 रु. में बिकेगी और हमारे उद्योगों की स्पर्धा करने की ताकत बढ़ जायेगी। इसी प्रकार निर्यातों पर 10 रु. की सब्सिडी दी जा सकती है। भारत में टी-शर्ट की उत्पादन लागत 50 रु. आती है जबकि विश्व बाजार में इसका दाम 40 रु. है। भारतीय निर्माता को 10 रु. की निर्यात सब्सिडी दी जाये तो वह विश्व बाजार में टिक सकता है। परन्तु इस फार्मूले को अपनाने के लिये हमें पूर्ण वैश्वीकरण को त्याग कर सीमित वैश्वीकरण को अपनाना होगा।
वैश्वीकरण का तार्किक परिणाम है कि सभी देशों को उस देश का अनुसरण करना होगा जो निकृष्टतम है। जो देश अपने प्राकृतिक साधनों को नष्ट करके सस्ती बिजली बनायेगा अथवा जो देश अपने श्रमिकों को न्यूनतम वेतन देकर उनका शोषण करेगा अथवा जो देश तांबे, लोहे एवं तेल जैसे अपने खनिजों को पानी के भाव बेचेगा, वह देश वैश्विक प्रतिस्पर्धा में जीतेगा।
दूसरे देशों को भी इन्हीं निकृष्ट नीतियों को अपनाना होगा अन्यथा वे विश्व बाजार से बाहर हो जायेंगे। वैश्विक होड़ में फंसकर हम अन्दर ही अन्दर खोखले हो जायेंगे, ठीक वैसे ही जैसे लकड़ी की चौखट को दीमक अन्दर ही अन्दर खोखला करती रहती है। ऐसी ही स्थिति पूर्ण वैश्वीकरण की है। हम अपने संसाधनों से हीन हो जायेंगे और अधोगति को प्राप्त होंगे। अत: घरेलू बाजार में ऊर्जा के मूल्य में वृद्धि करके खपत कम करनी चाहिये, जैसा केजरीवाल सरकार ने किया है।