कोरबा। शक्ति-भक्ति की प्राचीनता का अनूठा संगम छुरीकला के ग्राम कोसगईगढ़ में 500 वर्ष पुराने दुर्ग पर स्थित मां कोसगई देवी का मंदिर एक अलग आकर्षण पैदा करता है। नवरात्रि पर्व पर इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। शक्ति-भक्ति व प्राचीनता का अनूठा संगम देखने यहां श्रद्धालु उमड़ रहे हैं। पर्यटन स्थल के नाम पर कोसगाई को कश्मीर का दूसरा स्थान कहा गया है। शक्ति के पीठों में से एक मां कोसगई देवी मंदिर की तीन कारणों से अलग पहचान है। पहला यह कि मंदिर की देवी शांति का प्रतीक मानी जाती है इसलिए अन्य देवी मंदिरों के विपरीत सुर्ख लाल रंग के बजाए सफेद झंडे चढ़ाए जाते हैं। दूसरा यह कि अन्य मंदिरों की तरह इस देवी मंदिर में गुम्बज(छत) नहीं है। इस बारे में मान्यता है कि देवी मां खुले आसमान में रहना चाहती हैं। यंू तो भक्तजन यहां वर्षभर मां के दर्शन व मन्नत मांगने पहुंचते हैं, लेकिन नवरात्र पर्व पर श्रद्धालुओं का जन सैलाब उमड़ पडता है। भक्तों के द्वारा मनोकामना ज्योति कलश जलवायी गई है। इतिहास के पन्ने पलटें तो छत्तीसगढ़ के छत्तीस किलों में एक गढ़ कोसगाईगढ़ है। कटघोरा विकासखंड के अधीनस्थ ग्राम छुरी के समीप हसदेव नदी के निकट छुरीगढ़ कोसगई स्थित है। छुरी से 6 मील दूर उत्तर-पूर्व में बीहड़ जंगलों के बीच लगभग 200 फीट ऊंची एक पहाड़ी टेकरी के ऊपर मां कोसगई देवी की मूर्ति स्थापित है। टेकरी के शिखर पर पत्थर से बना हुआ एक छोटा सा किला है जो कोसगईगढ़ के दुर्ग के नाम से जाना जाता है। कोसगई का यह दुर्ग कौटिल्य द्वारा लिखित अर्थशास्त्र में वर्णित चार प्रकार के दुर्गों में पार्वती गिरी दुर्ग है। यह पहाड़ी चारों ओर से सीधी कटी हुई है, जिसके अब केवल अवशेष रह गए हैं तथा कोई भी शत्रु इस दुर्ग में जाने के रास्ते के अलावा किसी अन्य रास्ते से यहां नहीं पहुंच सकता था। इस दुर्ग कोसगईगढ़ का निर्माण काल 12वीं, 16वीं शताब्दी है। यह मंदिर दुर्ग चेदियों के उन्नति काल के समय से बना जब 487 वर्ष पूर्व इसी दुर्ग से रतनपुर के राजा हैहयवंशी राजा वाहरेन्द्र ने पठानों को परास्त किया था। इसके बाद राजा वाहरेन्द्र ने अपने खजाने व लाव लश्कर को छुरी जमींदारी के अधीन स्थित कोसगई पहाड़ पर छुपा दिया। जानकारी के अनुसार एक अन्य किदवंती शिव-सती के विवाह से जुड़ी हुई है। जब सती अपने पिता के आमंत्रण बिना ही यज्ञ में शामिल होने गई थी और वहां पति शिव का अपमान होते देखा तो ग्लानिवश यज्ञ कुंड में कूद कर भस्म हो गई। जब शिवजी को इस बात का पता चला तो उन्होंने वीरभद्र नामक एक गण को भेज हिमालय राजा के यज्ञ व राजपाठ को खंडित कर दिया। शिवजी सती के शव को कंधे पर उठाते घूमते रहे। देवताओं ने शंकरजी के इस वैराग्य को खत्म करने के लिए भगवान विष्णु से आग्रह किया। तब विष्णुजी ने अपना चक्र चलाया जिससे सती के शव के 52 टूकड़े होकर गिर गए। इसमें से एक टुकड़ा कोसगई पहाड़ी पर भी गिरा था इसलिए इसे बावन खड़ी के नाम से भी जाना जाता है। कोसगई पहाड़ी पर बने किले के बारे में कहा जाता है कि यह प्रसिद्ध डाकू धुरवां का निवास स्थान था। उसे किले के पहरेदार ने मार डाला और छुरी की जमींदारी पुरस्कार में प्राप्त की। रतनपुर के हैहयवंशी राजा बहरसाय की यह उपराजधानी थी। इस स्थान पर अन्नधव युद्ध की सामग्री पशुधन आदि कोष सुरक्षित रूप से रखते थे। किवदंती कहती है कि कोसगई पहाड़ पर स्थित तोप जंजाल किला भीमसेन ने बनवाया था। उस समय 6 महीने का दिन व 6 महीने की रात हुआ करती थी। यह किला रात में बनाना प्रारंभ किया परन्तु किला पूरी तरह बन नहीं पाया और सबेरा होने लगा। जिससे पहाड़ गिरने लगा और भीमसेन खुद पहाड़ को गिरने से रोकने के लिए पहाड़ को सहारा देकर खड़ा हो गया और इस प्रकार पहाड़ का गिरना बंद हुआ। भीमसेन आज भी पत्थर की मूर्ति के रूप में पहाड़ को उठाये मुद्रा में स्थित हंै।