रवि पाराशर। यूपी में नोएडा के गांव बिहासड़ा में हुआ कथित गोमांस हत्याकांड सुर्खयि़ों में है, लेकिन मौजूदा दौर की सियासत का एक अजीब-सा पक्ष फिर सामने आ गया है। सरकार ने पीडि़त परिवार को लखनऊ बुलाकर हत्या का बड़ा मुआवजा दे दिया। सवाल यह है कि क्या इस तरह इंसाफ हो जाता है? करीब-करीब सभी सरकारों की सोच इस तरह की ही है।
पिछले दिनों जून-जुलाई में दिल्ली सरकार ने राजधानी में एक लड़की की हत्या का मसला केंद्र सरकार के खिलाफ हथियार बनाया। दिल्ली सरकार ने लड़की के परिवार को पांच लाख रुपए देने का ऐलान किया। जवाब में पुलिस कमिश्नर ने मांग कर दी कि राजधानी में मार डाले गए पांच सौ लोगों के परिवारों को दिल्ली सरकार इसी तरह पांच-पांच लाख रुपए दे। सवाल यह है कि सरकारें ऐसे मामलों में एक समान नीति क्यों नहीं अपनातीं? क्या सियासत चमकाने, छवि साफ-सुथरी दिखाने या दूसरी पार्टी को नीचा दिखाने के लिए जनता के पैसे का यह एकतरफा विवेकाधीन इस्तेमाल जायज है? इस एक उदाहरण से साफ हो जाता है कि देश के सियासी लोकतांत्रिक ढांचे की पेंदी किस कदर गल गई है।
यह मुद्दा विस्तार से समझने के लिए फिर से यूपी का रुख़ करते हैं। राज्य सरकार और एक आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर के परिवार में जिस तरह ठनी है, उससे स्कूल-कॉलेज के दिनों में दो गुटों के बीच रंजिश की याद आती है। अमिताभ ने समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव पर धमकाने का आरोप लगाया और आखिरकार एफआईआर दर्ज करा ली। लेकिन खुद उनके खिलाफ रेप का केस दर्ज हो गया। उन्हें सस्पेंड कर दिया गया। इसके बाद उनकी पत्नी नूतन ठाकुर की अर्जी पर भ्रष्टाचार के एक बड़े मामले की जांच इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सीबीआई को सौंप दी। हालांकि हाईकोर्ट ने हज़ारों करोड़ रुपए के यादव सिंह भ्रष्टाचार मामले में यूपी सरकार के रवैये पर कड़ी टिप्पणियां की हैं, लेकिन इतने भर से वह या शक के दायरे में आए दूसरे लोग दोषी नहीं हो जाते।
सीबीआई जांच करेगी, मुकदमा चलेगा। तब फ़ैसला होगा। इसमें वक़्त लगेगा, लेकिन हाईकोर्ट के फैसले को छोड़कर बाकी पूरे मामले में क्या नहीं लगता कि यह किसी फिल्मी कहानी की तरह ही है? सरकार और एक अफसर के बीच यह जंग किसी कोण से स्वस्थ परंपरा नहीं कही जा सकती।
दूसरा पहलू भी देख लें। यूपी के ही शाहजहांपुर में पिछले दिनों पत्रकार जगेंद्र ने मृत्यु पूर्व बयान में आरोप लगाया कि मंत्री राममूर्ति सिंह के इशारे पर कुछ पुलिस वालों ने उन्हें जला दिया। मामला उछला, पत्रकार का परिवार धरने पर बैठ गया। कुछ दिन बाद पत्रकार के पिता लखनऊ में मुख्यमंत्री निवास पहुंचे और ख़बर आई कि परिवार के दो लोगों को सरकारी नौकरी मिलेगी। 30 लाख रुपए भी दिए जाएंगे। प्रशासन ने दशकों से चल रहा जमीन का झगड़ा भी चंद मिनटों में परिवार के पक्ष में सुलझा दिया। जैसा कि होता है, जगेंद्र को इंसाफ के समर्थन में देश भर से उठी आवाजें भी धीरे-धीरे ठंडी पड़ गईं। सवाल यह है कि क्या यूपी सरकार तब भी ऐसी मदद करती, जब दो सामान्य पक्षों के बीच विवाद में किसी की मौत हो जाती? यूपी से वापस लौटते हैं दिल्ली। आम आदमी पार्टी पर आरोप है कि इसी साल अप्रैल में उसकी रैली में ख़ुदकुशी करने वाला राजस्थान का किसान गजेंद्र सरकार के संपर्क में था। उसे ड्रामा करने के लिए उकसाया गया था, लेकिन हालात ऐसे बने कि वह फंदे में झूल गया। हल्ला जब ज्यादा मचा तो दिल्ली सरकार ने पैसे और सरकारी नौकरी से आक्रोश का तूफान थाम लिया। आप सरकार ने गजेंद्र को शहीद का दर्जा देकर उसकी प्रतिमा स्थापित करने का फैसला किया। लेकिन क्या यह सही फैसला था? क्या दिल्ली सरकार मानती है कि तमाम सरकारें ख़ुदकुशी करने वाले किसानों को शहीद का दर्जा दें? इसी तर्क के साथ दिल्ली हाईकोर्ट में दाखिल की गई याचिका पर केजरीवाल सरकार को फटकार भी लग चुकी है। किसी पीडि़त की मदद बुरी बात नहीं है, लेकिन अगर पहला मकसद छवि ज्यादा खराब नहीं होने देना है, तब सवाल उठने लाजिमी हैं। पहला सवाल यही है कि एक जैसे मामलों में पीडि़त परिवारों को क्या एक जैसी मदद नहीं दी जानी चाहिए? ऐसे मामलों में अमूमन पीडि़त लोग औसत या निचले दर्जे के होते हैं। उन्हें लगता है कि इनसानी नुकसान की भरपाई तो हो नहीं सकती, तो सरकार से पैसे और नौकरी ले लेना ही ठीक है।
एक उदाहरण राजस्थान से। जुलाई में हेमा मालिनी की कार से दूसरी कार भिड़ गई। उन्हें काफी चोटें आईं। लेकिन मीडिया ने सवाल उठाए कि वे संवेदनशीलता दिखातीं तो दूसरी कार में सवार बच्ची की जान बच सकती थी। हमले तेज हुए, तो घायलों को देखने राजस्थान के स्वास्थ्य मंत्री अस्पताल पहुंचे और मुफ्त इलाज का ऐलान कर आए। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने भी सहानुभूति जताई। क्या हादसों में घायल किसी आम आदमी को सरकार के दर्शन और मुफ्त इलाज नसीब हो सकता है? कहने का मतलब यह है कि सरकारों को पीडि़तों की मदद के लिए समान नीति बनानी चाहिए। खास पीडि़त और आम पीडि़त का फर्क मिटाना जरूरी है।