अंकित कुमार मिश्रा। आधुनिक भारत के निर्माताओं की अग्रिम पंक्ति में खड़े बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री, कानूनविद, राजनेता और समाजसुधारक थे। बाबासाहेब भारत के संविधान निर्माता रहे। वह आजीवन दलितों के साथ हो रहे भेदभाव को मिटाने एवं स्त्रियों को उनका सामाजिक अधिकार दिलाने के लिए संघर्षरत रहे। लेकिन जब इन सबको मिलाकर एक शब्द में उनका परिचय दिया जाएगा तो हम कहेंगे कि बाबासाहेब सच्चे अर्थों में ‘राष्ट्रनिर्माता’ हैं। वह एक प्रखर राष्ट्रवादी और समर्पित राष्ट्रभक्त थे। जिसप्रकार भारत की राजनीतिक एकता कायम करने में सरदार पटेल का योगदान अविस्मरणीय है वैसे ही भारतीय गणराज्य में सामाजिक समरसता स्थापित करने में बाबासाहेब का योगदान अनुकरणीय है। वर्ष 1940 में जब मुस्लिम लीग द्वारा भारत विभाजन एवं पाकिस्तान के निर्माण का प्रस्ताव पारित किए जाने के पश्चात बाबासाहेब ने ‘पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’ नामक किताब लिखी। तदोपरांत 1945 उन्होंने ‘थाट्स ऑन पाकिस्तान’ लिखा। इन दोनों किताबों में उन्होंने भारतीय ‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रवाद’ पर विस्तारपूर्वक अपने मौलिक एवं स्पष्ट विचार प्रस्तुत किए हैं। बाबासाहेब 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में पूछे गये सवालों का जवाब देते हुए कहते हैं कि भारत आजाद हो चुका है लेकिन उसका एक राष्ट्र बनना अभी बाकी है। भारत एक बनता हुआ राष्ट्र है। उनकी राय में अगर भारत को एक राष्ट्र बनना है, तो सबसे पहले हमें इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि जमीन के एक टुकड़े पर कुछ या अनेक लोगों के साथ रहने भर से राष्ट्र नहीं बन जाता है। राष्ट्र निर्माण में व्यक्तियों का ‘मैं’ से ‘हम’ बन जाना बहुत महत्वपूर्ण होता है। बाबासाहेब का राष्ट्रवाद प्रतीकों का राष्ट्रवाद नहीं है न वह नस्ल, धर्म, भाषा, भूगोल या साझा स्वार्थ को ही राष्ट्र मानते हैं। उनका राष्ट्र एक आध्यात्मिक विचार है, एक चेतना है। बाबासाहेब कहते हैं- हम एक राष्ट्र हैं, क्योंकि हम सब मानते हैं कि हम एक राष्ट्र हैं। उनकी दृष्टि में राष्ट्रवाद स्वार्थ या संकीर्ण विचारों से बेहद ऊपर का एक पवित्र विचार है। इतिहास के संयोगों ने हमें एक साथ जोड़ा है, हमारा अतीत साझा है, हमने वर्तमान में साझा राष्ट्र जीवन जीना तय किया है और भविष्य के हमारे सपने साझा हैं, और यह सब है इसलिए हम एक राष्ट्र हैं। बाबासाहेब के मतानुसार राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के बीच स्पष्ट अंतर है। ये मानव मन की दो भिन्न-भिन्न मन: स्थितियां हैं। उनकी राय में राष्ट्रीयता का तात्पर्य ‘सह-अस्तित्व की जागरूक चेतना’ से है वहीं राष्ट्रवाद का आशय ‘सह-अस्तित्व से बंधे हुए लोगों में एक अलग राष्ट्रीय अस्तित्व की इच्छा’ से है। आगे वह कहते हैं कि यह सच है कि राष्ट्रीयता के बिना राष्ट्रवाद का निर्माण नहीं हो सकता, परन्तु यह कहना हमेशा सच नहीं हो सकता। वे कहते हैं कि लोगों में राष्ट्रीयता की भावना उपस्थित हो सकती है, पर जरूरी नहीं है कि उनमें राष्ट्रवाद भी उपस्थित हो। अर्थात राष्ट्रीयता हमेशा राष्ट्रवाद को जन्म नहीं देती है। वे कहते हैं कि राष्ट्रीयता को राष्ट्रवाद में बदलने के लिए दो शर्तें जरूरी हैं। पहली, लोगों में एक राष्ट्र के रूप में रहने की आकांक्षा का जाग्रत होना, क्योंकि, राष्ट्रवाद इसी इच्छा की गतिशील अभिव्यक्ति है। और, दूसरी शर्त, एक ऐसे क्षेत्र का होना, जो एक राष्ट्र का सांस्कृतिक घर बन सके। राष्ट्र और राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में बाबासाहेब ने हिन्दू और मुस्लिम दोनों राष्ट्रों का तार्किक विश्लेषण किया है। वह कहते हैं राष्ट्रीयता के बिना न राष्ट्र सम्भव है और न राष्ट्रवाद। ‘राष्ट्रीयता क्या है’ के प्रशन पर बाबासाहेब लिखते हैं, राष्ट्रीयता एक सामाजिक भावना है जो लोगों में समान भाव जगाती है कि वे एक हैं और परस्पर सजातीय हैं। लेकिन इस राष्ट्रीय अनुभूति के दो पहलू हैं। एक तरफ यह अपने लोगों के प्रति अपनापन दिखाती है, तो दूसरी तरफ यह उन लोगों के प्रति, जो उनके अपने नहीं हैं, नफरत और तनाव का भाव पैदा करती है। इस प्रकार यह एक जातीय चेतना है जो लोगों को भावात्मक रूप से इतनी मजबूती से बांधे रखती है कि सामाजिक और आर्थिक विषमता की समस्याएं भी उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं रह जाती हैं। लेकिन ठीक उसी समय राष्ट्रीयता अपने से भिन्न समुदायों के प्रति घोर अलगाववादी चेतना है जो बहुत हद तक शत्रुतापूर्ण भी हो सकती है। लेकिन आगे बाबासाहेब इस चेतना का खंडन करते हुए कहते हैं कि यह दुधारी राष्ट्रीयता भारत को एक राष्ट्र नहीं बना सकती। भारत एक राष्ट्र उन्हीं परिस्थितियों में हो सकता है, जब या तो भारतीय समाज जातिविहीन हो, या एक ही जाति-समुदाय का हो अथवा वे सभी भारतवासी एक भारतीयता के भाव से मजबूती से बॅंधे हों। बाबासाहेब चेतावनी के अंदाज में कहते थे कि हजारों जातियों में बंटे भारतीय समाज का एक राष्ट्र बन पाना आसान नहीं होगा। सामाजिक व आर्थिक जीवन में घनघोर असमानता और कड़वाहट के रहते यह काम मुमकिन नहीं है। वह अपनी किताब ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में जाति को राष्ट्र विरोधी करार देते हैं। भारत में राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अवधारण पर बाबासाहेब ने काफी विस्तार से चर्चा की है। इस चर्चा में उन्होंने उसके हर पहलु पर विचार किया है। उनके अनुसार, ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की स्थापना के साथ ही इस विषय पर बहस तेज़ हो गई थी कि भारत एक राष्ट्र है या नहीं? वे लिखते हैं कि ब्रिटिश भारतीय इस मत के थे कि भारत एक राष्ट्र नहीं है, पर हिन्दू नेताओं का कहना था कि भारत एक राष्ट्र है। बाबासाहेब कहते हैं कि उनका सिद्धान्त दरअसल स्वराज के दावे से जुड़ा था, क्योंकि 19वीं सदी के अन्त तक यह सिद्धान्त व्यापक तौर पर प्रचलित हो गया था कि एक राष्ट्र के रूप में रहने वाले लोग ही स्वराज के दावे के असली अधिकारी हैं। इसलिए, भारतीयों को स्वराज माँगने के लिए अपने को एक राष्ट्र कहना आवश्यक था। बाबासाहेब अंबेडकर लिखते हैं कि ऐसी स्थिति में हिन्दुओं के लिए राष्ट्र और राष्ट्रवाद को नकारने का मतलब अपने वस्त्र उतार कर नंगा होने के समान था। उनके मुताबिक, इसी कारण से किसी भारतीय ने राष्ट्रवाद का खंडन नहीं किया, और जिसने किया उसे उन्होंने अंग्रेजों के पि_ू और देश के गद्दारों की संज्ञा दी। उनके अनुसार, इससे भयभीत विरोधियों ने तो जवाब देना बन्द कर दिया, कितु ठीक उसी वक्त मुस्लिम लीग ने मुस्लिम राष्ट्र की घोषणा करके हिन्दू राजनीतिज्ञों के पैरों तले की जमीन खिसका दी। यह राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हिन्दुओं के लिए बहुत बड़ा झटका था। बाबासाहेब के राष्ट्रवाद की अवधारणा में संकीर्णता का कोई स्थान नहीं है। उन्होंने कहा था कि मैं ब्राहमणवाद का विरोधी हूँ किन्तु व्यक्तिगत रूप से किसी ब्राह्मण का शत्रु कतई नहीं हूँ। वह हिन्दू धर्म के मानवीय समानता की व्यवस्था के प्रबल समर्थक जबकि जाति और वर्ण व्यवस्था के प्रबल विरोधी थे। वह भारत की मूल सांस्कृतिक धारा से बिलकुल भी पृथक नहीं होना चाहते थे। यही वजह है कि जब उन्होंने धर्मांतरण किया तो हिन्दू धर्म का त्याग कर इस्लाम या ईसाइयत को धारण नहीं किया बल्कि बौद्ध धर्म अपनाया। वहीं 1945 में लिखी अपनी किताब ‘थाट्स ओन पाकिस्तान’ में उन्होंने मुस्लिम सांप्रदायिकता पर भी करारा प्रहार किया। बाबासाहेब भारतीय राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों में यकीन रखते थे। अपनी पुस्तक ‘थाट्स आन पाकिस्तान’ में वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की हिन्दू राष्ट्र की विचारधारा के जनक विनायक दामोदर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू राष्ट्रवाद और मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम राष्ट्रवाद की विचारधारा की तुलना करते हुए कहते हैं, ‘यह अजीब प्रतीत हो सकता है परंतु जहां तक एक राष्ट्र बनाम द्विराष्ट्र के मुद्दे का प्रश्न है, श्री सावरकर और श्री जिन्ना में कोई विरोध नहीं है। जबकि उल्टे, वे एक दूसरे से पूरी तरह सहमत हैं। दोनों सहमत हैं, सहमत ही नहीं बल्कि जोर देकर यह कहते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं। एक हिन्दू राष्ट्र और दूसरा मुस्लिम राष्ट्रज्। उनके मतभेद सिर्फ इस मुद्दे पर हैं कि इन दोनों राष्ट्रों को किन शर्तों के अधीन रहना होगा। जिन्ना का कहना है कि भारत को पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में बांट दिया जाना चाहिए। मुस्लिम राष्ट्र को पाकिस्तान में रहना चाहिए और हिन्दू राष्ट्र को हिन्दुस्तान में। दूसरी ओर, श्री सावरकर का जोर इस बात पर है कि यद्यपि भारत में दो राष्ट्र हैं तथापि भारत दो भागों में विभाजित नहीं किया जाना चाहिए, जिनमें से एक भाग मुसलमानों का हो और दूसरा हिन्दुओं का। बल्कि, दोनों राष्ट्र एक ही देश में रहेंगे जिसका एक संविधान होगा और यह कि यह संविधान ऐसा होगा जो हिन्दू राष्ट्र को प्राधान्य देगा और मुस्लिम राष्ट्र को हिन्दू राष्ट्र के अधीन रहना होगा”।
बाबा साहेब समग्र भारतीय राष्ट्रवाद के हिमायती थे। अपनी इसी किताब में वह लिखते हैं- ‘‘क्या यह तथ्य नहीं है कि मोन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के अंतर्गत अगर सभी नहीं तो अधिकांश प्रांतों मे मुसलमानों, गैर-ब्राह्मणों और शोषित वर्गों ने एकता स्थापित की और एक टीम की तरह सुधारों को लागू करने के लिए 1920 से 1937 तक मिलकर कार्य किए। यह हिन्दुओं और मुसलमानों में साम्प्रदायिक सद्भाव स्थापित करने और हिन्दू राज के खतरे को समाप्त करने का सबसे सरल तरीका है। श्री जिन्ना आसानी से इस राह पर चल सकते हैं और उनके लिए इस राह पर चलकर सफलता प्राप्त करना मुश्किल भी नहीं है। वे हिन्दू राष्ट्रवाद की अवधारणा के पूर्णत: खिलाफ थे। अपनी इसी किताब के ‘मस्ट देयर बी पाकिस्तान’ हिस्से में वे लिखते हैं, ‘अगर हिन्दू राज स्थापित हो जाता है तो नि:संदेह वह इस देश के लिए एक बहुत बड़ी आपदा होगी। हिन्दू चाहे कुछ भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मार्ग में खतरा है। इसी कारण वह लोकतंत्र के साथ असंगत है। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।’
बाबासाहेब की संकल्पना का राष्ट्र एक आधुनिक विचार है। वे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की बात करते हैं, लेकिन वे इसे पश्चिमी विचार नहीं मानते हैं। वे इन विचारों को फ्रांसिसी क्रांति से न लेकर, बौद्ध परंपरा से लेते हैं। संसदीय प्रणालियों को भी वे बौद्ध भिक्षु संघों की परंपरा से जोड़ कर देखते हैं। बाबासाहेब का मत था कि राजीतिक और प्रजातांत्रिक एकता की हिफाज़त के लिए सामाजिक और आर्थिक समता स्थापित करने के लिए समुचित व्यवस्था अनिवार्य है।वह आजीवन प्रयासरत रहे कि भारत विश्वपटल पर एकता, अखंडता और समानता का प्रतिक बन कर उभरे। बाबासाहेब एक ऐसे व्यापक, स्वस्थ और समृद्ध राष्ट्रवाद की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं जिसकी बुनियाद जाति, धर्म, वर्ण आधारित न होकर सिफऱ् और सिफऱ् भारतीयता हो।
बकौल बाबासाहेब अंबेडकर राष्ट्र जब लोगों की सामूहिक चेतना में है, तभी सच्चे अर्थों में वह राष्ट्र है। वह चाहते थे कि भारत के लोग, तमाम अन्य पहचानों से ऊपर उठकर, खुद को सिर्फ भारतीय मानें। राष्ट्रीय एकता ऐसे ही में स्थापित होगी। इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्तमान समय और सन्दर्भ में, बाबासाहेब के राष्ट्र संबंधी विचारों को न सिफऱ् पुन: पढ़े जाने की अपितु आत्मसात किये जाने की प्रबल आवश्यकता है।