हैं रुबाई जड़ी
टेढ़ी-मेढ़ी अपनी पगडंडी
पर चलती उड़ती,
ये अंखियां बड़ी-बड़ी
रहैं दूर हीं दूर
है जो राह भीड़ भरी.
ममता की नदिया में
चपल,मुस्कानों की
खेती हैं कश्ती
ये अँखियाँ बड़ी-बड़ी।
प्रेमिल है भाषा
हैं ये ज्योति की लड़ी।
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स्वप्न
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लपेट कर
मगही पान की कतरनें,
जाते साल की
किसी आखिरी दुपहर ,
हम चूम रहे हैं
जून के रेगिस्तान,
हम चूम रहे हैं
कोहसार की दिसंबर।
महेंद्रू के ‘वन वे’ से
जरा दूर
हम गंगा के पार लेटते हैं
मु_ी में भरने को
रेत मिली धुप
के बीच
इक दूसरे की बीच वाली ऊँगली।
हम चूम रहे हैं
गंगा के पानी लगे स्वप्न।
लेखक- ज्योति गुप्ता