सुधीर जैन, जगदलपुर। दीपावली पर विद्युत झालरों के चलन के कारण पारंपरिक दीयों का महत्व घटता जा रहा है। दीपावली अंधकार पर्व प्रकाश के विजय का पर्व है और इस अवसर पर घर के बाहर मिट्टी के दीपक जलाये जाते हंै, लेकिन इस परम्परागत त्यौहार में भी आधुनिकता का रंग चढऩे लगा है और अधिकांश परिवार अपने घरों की सजावट आधुनिक रौशनी के साधनों से करने लगे है इलेक्ट्रानिक और विद्युत झालरों की रौशनी में मिट्टी की दीयों की चमक फीकी पड़ती जा रही है। दीपावली पर्व पर दीयों का अपना महत्व है और इसे बनाने वाले कुम्हारों ने इस वर्ष भी इसकी पूरी तैयारी कर ली है। दीयों का निर्माण अब अंतिम चरण में है। कुम्हारों का पूरा परिवार घरों में दीपक बनाने के कार्य में जुटा हुआ है। इस परिवारों द्वारा हजारों की संख्या में दीये तैयार कर लिये गये है तथा दीपावली पर्व पर 15 दिनों पूर्व ही दीये बनाने का कार्य पूरा कर लिया जाता है। कुम्हार चैतुराम ने बताया कि 70 वर्षों से उनके परिवार में दीये बनाने का कार्य हो रहा है तथा परिवार के सभी सदस्य मिलकर दीपक बनाने का कार्य करते हैं, अभी 2000 दिये बन गये हैं। इस साल दीपावली में अच्छी कमाई की उम्मीद है। दूसरे कुम्हार सोमारु नाग का परिवार भी इसी व्यवसाय पर निर्भर है। उन्होंने ने बताया कि बढ़ती महंगाई और आधुनिकता के कारण दीयों की चमक फीकी पड़ चुकी है। बढ़ती मंहगाई के बाद भी परिवार के पालन पोषण के लिए कड़ी मेहनत से दीये बनाने का काम करना पड़ता है, लेकिन मेहनत के मुताबिक मुनाफा नहीं मिलता। कुछ गृहणियों का मानना है कि आधुनिक रौशनी के साथ वे शगुन के रुप में दीपकों की पंक्ति परम्परागत रुप से वे घर के सामने सजाती हैं।
राजस्थानी दिए लुभा रहे श्रद्धालुओं को
हर साल की तरह इस साल भी दीवाली के पहले राजस्थानी टेराकोटा आर्ट का विक्रय करने के लिए व्यवसायी पहुंचे चुके हैं। काली मिट्टी से बनाए गए मनमोहक दिए, पूजन थाली, झूमर, बुद्धा समेत अनेक प्रकार के आइटम लोगों को लुभा रहे हैं। विक्रेताओं ने बताया कि वे हर साल दशहरा के पहले यहां आते हैं। ट्रांसपोर्ट के द्वारा माल राजस्थान से यहां लाया जाता है। उनके यहां पारंपरिक शैली में बनाए गए दिये 100 रूपए दर्जन, पूजन थाली, प्लेट, गमला तुलसी चौरा और झूमर 150 से 450 रूपए में बेची जा रही है। मिट्टी के दीप की खासी मांग रहती है, इसके अलावा और भी फैंसी आइटमों की श्रंृखला उपलब्ध है।